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चतुर्थ परिच्छेद
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प्रकार के हैं, ६. आश्रित - आत्मा के उपकार के वास्ते प्रधान का अवलंव लेकर स्थित है, ७. लिग [ लयं क्षयं गच्छ - तीति लिगम् ] - जो जिस से उत्पन्न होते हैं, सो तिस ही में लय हो जाते हैं। पांच भूत, पांच तन्मात्राओं में लय होते हैं, और पांच तन्मात्रा, अरु दश इन्द्रिय, तथा मन, यह अहंकार में लय होते हैं, अरु अहंकार बुद्धि में लय होता है, अरु वुद्धि प्रकृति में लय होती है, और प्रकृति किसी में भी लय नहीं होती है । ८ सावयव - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धादिकों करके संयुक्त हैं, . परतंत्र - कारण के अधीन होने से परवश हैं । प्रकृति इन से विपरीत है । सो सुगम है, आपही समझ लेनी । यह थोड़ा सा स्वरूप लिखा है, जेकर विस्तार देखना होवे तो सांख्यसप्तति आदिक सांख्य मत के शास्त्रों से देख लेना ।
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अव पच्चीसवें पुरुष तत्व का स्वरूप कहते है । * " अकर्त्ता विगुणो भोक्ता नित्यचिपुरुषतत्त्व का दभ्युपेतश्च पुमानू" - पुरुष तत्त्व श्रात्मा को कहते हैं । श्रात्मा जो है, सो विषय सुख
स्वरूप
श्रादि के कारणभूत पुण्यादि के करने वाला नहीं है, इस वास्ते 'अकर्त्ता' है । प्रात्मा तृण मात्र भी तोड़ने में समर्थ नहीं है, अत कर्त्ता जो है, सो प्रकृति ही है,
* " श्रन्यस्त्वकर्ता विगुणश्च भोक्ता,
तत्त्वं पुमान्नित्यचिदभ्युपेतः" ।
[ षड्० स०, श्लो० ४१ ]