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चतुर्थ परिच्छेद
यदि विदितं कपिलमतं, तत्प्राप्स्यसि मोक्षसौख्यमचिरेण ॥
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पंचविशतितच्चज्ञो, यत्र तत्राश्रमे रतः । शिखी मुण्डी जटी वापि, मुच्यते नात्र संशयः ॥
अर्थः-- जेकर तुमने कपिल मत जाना है, तो हंसो, पियो, खेलो, खाओ, सदा खुशी रहो, जैसे रुचि होवे, तैसे भोगों को सदा भोगो, तो तुम को थोड़े से काल में मुक्ति का सुख प्राप्त हो जावेगा । पच्चीस तत्त्वों का जो जानकार होवे, सो चाहे किसी आश्रम में रहे, शिखावाला होवे, वा मुण्डित होवे, अथवा जटावाला होवे, वे सर्व उपाधि से छूट जाता है, इस में संशय नहीं ।
श्रव सांख्यमत में सर्व सांख्यवादी, पच्चीस तत्त्व मानते हैं। जब यह पुरुष तीन दुःखों से अभिहत होता दु.खत्रय है, तब तिन दुःखों के दूर करने के बा जिज्ञासा उत्पन्न होती है । सो तीन दुःख यह हैं:--- १. आध्यात्मिक, २. आधिदैविक, ३. आधिभौतिक । आध्यात्मिक जो दुःख है, सो दो प्रकार का है, एक शारीरिक, दूसरा मानसिक । तहां जो वायु, पित्त, श्लेष्म, इन तीनों की विषमता से देह में जो अतिसारादिक होते हैं, सो शारीरिक है । अरु विषयों के देखने से जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या आदि होवे, सो मानसिक दुःख है । यह दोनों ही