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जैनतत्वादर्श
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आंतरिक उपाय से दूर हो सकते हैं, इस वास्ते इन को आध्यात्मिक दुःख कहते हैं । २. जो दुख मनुष्य, पशु, पक्षी, मृग, सर्प, स्थावर आदि के निमित्त करके होता है, तिस को आधिभौतिक कहते हैं, ३ तथा यक्ष, राक्षस, भूतादिक का प्रवेश हो जाना, महामारी, अनावृष्टि अतिवृष्टि का होना. तिस का नाम आधिभौतिक है । अन्तिम दो दुःख बाह्य हैं, क्योंकि बाह्य उपाय से साध्य हैं । इन तीनों दुःखों करके दुखो हुए प्राणियों के दुखों के दूर करने को वास्ते तत्वों के जानने की इच्छा होती है । सो वे तत्त्व पच्चीस हैं ।
अब इन का स्वरूप लिखते हैं । तिन में प्रथम सत्त्वादि गुणों का स्वरूप कहते हैं । प्रथम सत्त्वगुण सुख लक्षण, दूसरा रजोगुण दुःख लक्षण, तीसरा तमोगुण मोहलक्षण है । इन तीनों गुणों के यह लिंग हैं: - सत्त्वगुण का चिन्ह प्रसन्नता, रजोगुण का चिन्ह संताप, तमोगुण का चिन्ह दीनपना । प्रसाद, वुद्धि पाटव, लाघव, प्रश्रय, अनभिष्वंग, अद्वेष, प्रीति आदि, यह सत्त्वगुण के कार्यलिग हैं । ताप, शोष, भेद, चलचित्तता, स्तंभ, उद्वेग, यह रजोगुण के कार्य लिग हैं । दैन्य, मोह, मरण, सादन, बीभत्सा, अज्ञानगौरवादि, यह तमोगुण के कार्यलिंग हैं । इन कार्यों के द्वारा सवादि गुण जाने जाते हैं। जैसे कि लोक में किसी पुरुष को जो कुछ सुख उपलब्ध होता है, सो आर्जव, मार्द्रव, सत्य,
तोन गुणों का
स्वरूप