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चतुर्थ परिच्छेद
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लिखा है, इस काष्ठ की मुखवस्त्रिका को मुख के निश्वासनिरोध के वास्ते रखते हैं, जिस से मुखश्वास से जीवहिसा न होवे | यदाहस्ते:
घ्राणादितोऽनुयातेन, श्वासेनैकेन जंतवः । हन्यते शतशो ब्रह्मन्नणुमात्राक्षरवादिनाम् ||
[ षड्० स०, वृ० वृत्ति, अ० ३ ]
वे सांख्य मत के गुरु (साधु) जल के जीवों की दया के वास्ते अपने पास पानी के छानने के निमित्त एक गलना रखते हैं, अरु अपने भक्तों को पानी के वास्ते तीस अंगुल प्रमाण लम्बा और वीस अंगुल प्रमाण चौड़ा, दृढ गलना रखने का उपदेश करते हैं । अरु जो जीव पानी के छानने से निकले, उस को उसी पानी में पीछे प्रक्षेप कर देना, क्योंकि मीठे पानी करके खारे पानी के अरु खारे पानी के मिलने से इस वास्ते दोनों पानी का सूक्ष्म पानी के एक विदु में के समान उन जीवों की
पूरे मर जाते हैं, मीठे पानी के पूरे मर जाते हैं, परस्पर मेल न करना । बहुत इतने जीव हैं, कि जेकर भ्रमर काया बनाई जावे, तो तीन
* वर्तमान काल मे साख्यमत के साधु नही है, जिस समय मे वे विद्यमान थे, उस समय मे उन का जो वेष तथा आचार था, उस का यह वर्णन है ।