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चतुर्थ परिच्छेद
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है । परंतु जो सुर, नरपति आदिक की विनय है, सो संसार का हेतु है; क्योंकि जो जिस को विनय करता है, वो उस के गुणों को बहुमान देता है । अरु सुर, नरपति प्रमुख में तो विषय भोगने का प्रधान गुण है, जब उन की विनय करी, तब तो उन के भोगों को बहुमान दिया, जब भोगों को बहुमान दिया, तब दीर्घ संसार पथ की प्रवृत्ति कर लीनी । इस वास्ते एकांत विनय से जो मोक्ष मानते हैं, सो भी असत् वादी हैं, क्योंकि ज्ञानादिकों से रहित विनय साक्षात् मुक्ति का अंग नहीं है । ज्ञान, दर्शन, और चारित्र से रहित पुरुष, केवल *पादपतनादिक विनय से मुक्ति नहीं पा सकता है, किंतु ज्ञानादिक सहित हो कर ही पा सकता है, तब ज्ञानादिक ही साक्षात् मुक्ति के अंग हुए विनय नहीं ।
प्रतिवादी: - हम कैसे जाने कि ज्ञानादिक ही मुक्ति के अंग हैं ?
सिद्धान्ती : - इस संसार में मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, इन तीनों ही करके कर्म वर्गणा का सम्बन्ध आत्मा के साथ होता है, कर्ममल का जो तय होना है, सोई मोक्ष है, "मुक्तिकर्मक्षयादिष्टेति वचनप्रामाण्यात्" । कर्म का क्षय तब होगा, जब कर्मबन्ध के कारण का उच्छेद होगा, कर्मबन्ध के कारण मिथ्यात्वादि तीन हैं, इन मिथ्यात्व आदि का प्रति
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+ [ शा० स०, स्त० २ श्लो० ४४ ]
* पैरों पडने आदि ।
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