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जैन तत्त्वादर्श
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tयक, १०. कुशिक, ११. अत्रि, १२ पिंगल, १३ पुष्पक, १४. बृहदार्य, १५. अगस्ति, १६. संतान, १७ राशिकर, १८. विद्या गुरु, यह अठारह उन के तीर्थेश हैं । इन को बहुत सेवा करते हैं । इन का पूजन, अरु प्रणिधान तिन के शास्त्रों से जान लेना ।
इन का अक्षपाद मुनि अर्थात् गौतम मुनि गुरु हैं । तिन के मत में भर ही पूजनीक हैं। वे कहते हैं, कि देवताओं के सन्मुख हो कर नमस्कार नहीं करनी चाहिये। जैसा तैयायिक सत में लिंग, वेष, और देव आदि का स्वरूप है. तैसा ही वैशेषिकमत में भी जान लेना, क्योंकि नैयायिक वैशेषिकों के प्रमाण अरु तत्वों में बहुत थोड़ा भेद है । इस वास्ते 'यह दोनों मत तुल्य ही हैं। इन दोनों ही को तपस्त्री कहते हैं । अरु इन के शैवादिक चार भेद हैं- १. शैव, २. पाशुपत, ३. महाव्रतधर, और ४. कालमुख । इन के अवांतर भेद भरंट, भक्तलैगिक, और तापसादिक हैं । भरद्वादिकों को व्रत के ग्रहण करने में ब्राह्मणादि वर्णों का नियम नहीं, कितु जिसे की शिव के विषे भक्ति होत्रे, सो व्रती भरटादिकं होता है । परन्तु शास्त्रों में नैयायिक को सदा शिवभक्त - होने से शैव और वैशेषिकों को पाशुपतं कहते हैं ।
इन नैयायिकों के मत में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, * इस सारे प्रकरण के लिये देखो षड्० स० को गुणरत्नसूरिकृत
वृत्ति 1.
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