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जैनतत्त्वादर्श पक्षी सम्यक् दर्शन है, अज्ञान का प्रतिपक्षी सम्यक् ज्ञान अरु अविरति का प्रतिपक्षी सम्यक् चारित्र है । जब यह तीनों प्रकर्ष भावको प्राप्त होंगे, तब सर्वथा कर्मों के बन्ध का कारण दूर होगा, जब कारण का उच्छेद हो जावेगा, तव समूल कर्मोच्छेद होने से मोक्ष होवेगी । इस वास्ते ज्ञानादिक हो मोक्ष के अंग हैं, विनय मात्र नहीं । विनय तो ज्ञानादि के द्वारा परंपरा करके मुक्ति का अंग है। परन्तु साक्षात् मोक्ष के हेतु तो ज्ञानादिक ही हैं। अरु जो जैनशास्त्रों में कई जगे पर यह लिखा है कि "सर्वकल्याणभाजनं विनयः" सो ज्ञानादिकों की प्रवृत्ति के वास्ते ही लिखा है। जेकर विनयवादी भी इस तरे मानता है, तब तो विनयवादी भी हमारे मत का ही समर्थक है, तब तो फिर विवाद का ही प्रभाव है । यह समुच्चय ३६३ मत का किंचित् मात्र स्वरूप लिखा है।
अथ भव्य जीवों के बोध के वास्ते षट् दर्शनों का किचित् स्वरूप खिखते हैं:उस में प्रथम बौद्ध दर्शन का स्वरूप कहते हैं। बौद्ध
मत में जो गुरु होते हैं, तिन का लिग ऐसा बौद्धमत का होता है । मस्तक मुण्डा हुआ, चाम का स्वरूप टुकड़ा, कमंडलु, धातुरक्त वस्त्र, यह तो उनका
वेष है । अरु शौचक्रिया बहुत है, कोमल शय्या में सोना, सवेरे उठ करके पेय पीना, मध्यान्ह काल में भात