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जैन तत्त्वादर्श
*तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥
ऐसा ज्ञानो, विवेकी पवित्र आत्मा और पर जीवों के हिन करने में एकांत रस लेने वाला, जेकर वाद भी करेगा, तब भी पर जीवों के उपकार के ही वास्ते करेगा । अरु वह भी राजा आदि परीक्षक, निपुण बुद्धि वालों की परिषदा मैं ही करेगा, धन्यथा नहीं । ऐसे ही तीर्थकर गणधरों ने वाद करने की आज्ञा दीनी है । जब ऐसे है तब वाद से चित्त की मलिनता द्वारा कर्म का बन्ध होने से दीर्घतर संसार की वृद्धि कैसे होवे १ ज्ञानवान् का जो वाद है, सो केवल वादी, नरपति आदि परीक्षकों के प्रज्ञान को दूर करने वास्ते है । सम्यक् ज्ञान के प्रगट होने से आत्मा का बड़ा उपकार होता है । इस वास्ते ज्ञान हो श्रेय है ।
रु जो अज्ञानवादी कहता है, किं तीव्र अध्यवसाय करके जो कर्म उत्पन्न होते हैं, उन से दारुण विपाक फल होता है, सो तो हम मानते हैं । परन्तु जो अशुभ अध्यवसाय है, तिसका हेतु ज्ञान नहीं है, क्योंकि अंज्ञान ही अशुंभाध्यवसायों का हेतु देखने में भाता है । इस में इतनी बात और जानने
* वह ज्ञान ही नहीं है, कि जिंस के उदय होने पर रागादि दोषों का समूह बना रहे । अन्धकार में यह शक्ति कहा, कि वह सूर्य की किरणों के आगे ठहर सके ।