________________
चतुर्थ परिच्छेद
२५७ प्राकाश भी देश भेद करके सुख दुःख का हेतु है, जैसे मारवाड़ देश में आकाश दुःखदायी है, शेष सजल देशों में सुखदायी है । यह भी तुमारा कहना असत् है । क्योंकि तिन मारवाड़ादि देशों में भी आकाश में रहे हुए जो पुद्गल हैं, उन पुद्गलों ही करी दुःख सुख होते हैं । तथाहि मरुस्थली जो है, सो प्रायः जल करके रहित है, अरु तिस में वालु भी बहुत है । तहां जब रस्ते में चलते हुए पग बालु में धस जाते हैं, तब तो पसीना बहुत आ जाता है। जब उष्ण काल में सूर्य की किरणों से वालु तप जाता है, तव बहुत संताप होता है । अरु जल भी पीने को पूरा नहीं मिलता है, तिस के खोदने में बहुत प्रयत्न करना पड़ता है । इस वास्ते उन देशों में बहुत दुःख है । परन्तु सजल देशों में पूर्वोक्त कारण नहीं हैं । इस वास्ते पूर्वोक्त दुःख भी नहीं है । इस हेतु से पुद्गल ही सुख दुःख का हेतु है, परन्तु प्राकाश नहीं। ___ अब जेकर नियति को अभावरूप मानोगे, तो यह भी तुमारा पक्ष अयुक्त है, क्योंकि अभाव जो है सो तुच्छरूप है, शक्ति रहित है, और कार्य करने में समर्थ नहीं है। क्योंकि कटक कुण्डलादिकों का जो अभाव है। सो कटक कुण्डल उत्पन्न करने को समर्थ नहीं है, ऐसे देखने में आता है। जेकर कटक कुण्डलादिकों का अभाव कटक कुण्डलादिक उत्पन्न करे, तब तो जगत् में कोई भी दरिद्री न रहे।
प्रतिवादी:-घटाभावं जो है सो मृत्पिड है। तिस माटी