________________
२६०
जैनतत्त्वादर्श
रूप है ? वा अनेक रूप है ? इत्यादि सर्व दूषया नियति को तरे समझ लेने |
एक और भी बात है । वह यह कि स्वभाव आत्मा के भावको कहते हैं । इस पर हम पूछते हैं, कि स्वभाव कार्यगत हेतु है ? वा कारण गत ? कार्यगत तो है नहीं, क्योंकि जब कार्य उत्पन्न हो जावेगा, तब कार्यगत स्वभाव होगा और विना कार्य के हुए कार्यगत हो नहीं सकता । तथा जब कार्य स्वयं अर्थात् स्वभाव के विना हो गया, तब तिसका हेतु स्वभाव कैसे हो सकता है ? क्योंकि जो जिस के अलब्धात्मलाभ संपादन में समर्थ होवे, सो तिसका हेतु है । परन्तु कार्य तो उस के विना निष्पन्न होने करके स्वयमेव लब्धात्मलाभ है । यदि ऐसा न हो, तो स्वभाव ही को प्रभाव का प्रसंग हो जावेगा, अतः अकेला स्वभाव कार्य का हेतु नहीं है। जेकर कहोगे कि वह कारणगत हेतु है, सो यह तो हम को भी संमत है । वह स्वभाव प्रतिकारण भिन्न है । तिस करके माटी से घट ही होता है, पटादि नहीं, क्योंकि माटी के पिंड में पटादि उत्पन्न करने का स्वभाव नहीं है । अरु तंतुओं से पर ही होता है, घटादि नहीं होते, क्योंकि तंतुओं में घट उत्पन्न करने का स्वभाव नहीं है । तिस वास्ते जो तुमने कहा था, कि मादीसे घटही होता है, पटादि नहीं होता; सो तो सर्व कारणगत. स्वभाव मानने से सिद्ध ही की साधना है । अतः यह पक्ष हमारे मत का बाधक नहीं है । तथा जो तुमने. कहा