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तृतीय परिच्छेद इच्छा करे है । तिस यश के होने से बहुत खुशी माने है। सुखशीलिया होवे है, और दिन रात्रि की क्रिया सामाचारी में बहुत उद्यमी भी नहीं होवे है ।
परिवारो य असंजम, अविवित्तो होइ किंचि एयस्त । धंसियपाओ तिल्लाइमसिणिो कत्तरियकेसो ॥
[पं० नि०, गा० १८] अर्थः-इस का जो परिवार होवे, सो असंयमी-असंयम वाला होवे है, वस्त्र पात्रादिक के मोह से वस्त्र पात्रादिक से दूर न जावे, पग को झांवें आदिक से रगड़ कर तैलादिक चोपड़ के सुकुमार करे और शिर, दाढ़ी, मूंछ के वाल कतरणी से कतरे एतावता लोच की जगे उस्तरे, वा कतरणी से बाल दूर करे है। तह देससबछेयारिहेहिं सबलेहि संजुओ वउसो। मोहक्खयत्थमन्भुडिओ सुतमि भणियं च ॥
[पं० नि०, गा० १६] अर्थः-देशच्छेद तथा सर्वच्छेद के योग्य दोषों करी जिस का चारित्र कर है [अर्थात् उक्त दोषों से युक्त है ] परन्तु मन में उस के मोहक्षय करने की इच्छा है, एतावता मन में संयम पालने में उत्साह है, परन्तु पूर्ण संयम पाल नहीं सकता । उस को वकुश निर्ग्रन्थ कहिये । और सूत्र में जो कहा है, सो लिखते हैं: