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जैनतत्त्वादर्श . अज्ञानवादी। वे ऐसे कहते हैं, कि ज्ञान अच्छी वस्तु नहीं है। क्योंकि ज्ञान जब होवेगा, तब परस्पर विवाद होगा; जबविवाद होगा तब चित्त मलिन होगा जब चित्त मलिन होगा, तब संसार की वृद्धि होगी। जैसे किसी पुरुष ने कोई वस्तु (बात) उलटी कही, तब तिस को सुन कर जो ज्ञानी अपने ज्ञान के अभिमान से उस पुरुष के ऊपर बहुत मलिन चित्त करके (क्रुद्ध हो कर ) उस के साथ विवाद करने लगा, विवाद करते हुए चित्त अत्यन्त मलिन हुआ अरु अहंकार बढ़ा, उस अहंकार और चित्त की मलिनता से महा पाप कर्म उत्पन्न हुआ, तिस पाप से दीर्घतर संसार की वृद्धि हुई । इस वास्ते ज्ञान अच्छी वस्तु नहीं है। अरु जब अपने को अज्ञानी मानिये, तव तो अहंकार का संभव नहीं होता है, अरु दूसरों के ऊपर चित्त का मलिनपन भी नहीं होता है। तिस वास्ते कर्म का बन्ध भी नहीं होता है । तथा जो कार्य विचार कर किया जाता है, तिस में महा कर्म का बन्ध होता है, और उस का फल भी महा भयानक होता है। इस वास्ते उस का फल अवश्यमेव भोगने में आता है । परन्तु जो काम मनोव्यापार के बिना किया जाता है, तिस का फल भयानक नहीं होता, अरु अवश्यमेव भोगने में भी नहीं आता है । जो उस काम में किचित् कर्म वन्ध होता है, सो
* कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तदेषामस्तीत्यज्ञानिकाः, अथवाऽज्ञानेन चरन्तीत्यनानिकाः । षड्० स०, श्लो० १ की वृहद्वृत्ति ]