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चतुर्थ परिच्छेद
२४३ से प्रगट कर देते हैं । इंद्रजाल के २७ पीठ हैं, तिन में से कितनेक पीठों के पाठक अपने आपको तीर्थंकर के रूप में अरु पूजा करते हुए इन्द्र, देवता, बना सकते हैं। तो फिर देवताओं का आगमन अरु पूजा देखने से सर्वज्ञपन क्योंकर सिद्ध होवे, जो हम श्रीमहावीर जी को सर्वज्ञ मान लेवें । तुमारे मत का स्तुतिकार प्राचार्य समंतभद्र भी कहता है।
देवागमनभोयान-चामरादिविभूतयः। मायाविष्वपि दृश्यते, नातस्त्वमसि नो महान् ।।
[आ० मी०, श्लो०१] इस श्लोक का भावार्थः-देवताओं का आगमन, आकाश में चलना, छत्र चामरादिक की विभूति, यह सर्व आडवर, इंद्रजालियों में, भी हो सकता है। इस हेतु से तो हे भगवन् ! तू हमारा महान्-स्तुति करने योग्य नहीं हो सकता है । तथा हे जैन ! तेरे कहने से महावीर ही सर्वज्ञ होवे, तो भी यह जो आचारांगादिक शास्त्र हैं, सो महावीर सर्वज्ञ ही के कथन करे हुए हैं, यह क्योंकर जाना जाये ? क्या जाने किसी धूर्त ने रच करके महावीर का नाम रख दिया होवेगा? क्योंकि यह वात इन्द्रिय ज्ञान का विषय नहीं है; अरु अतींद्रिय ज्ञान की सिद्धि में कोई भी प्रमाण नहीं है।
भला कदी यह भी होवे, कि जो प्राचारांगादिक शास्त्र