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चतुर्थ परिच्छेद
२५३ करके कार्य उत्पन्न करे, तब तो सर्वदा तिसही रूप करके कार्य - उत्पन्न करना चाहिये; क्योंकि तिस के रूप में कोई भी विशेषता नहीं है, अर्थात् एक ही रूप है । परन्तु सर्वदा तिस ही रूप करके तो कार्य उत्पन्न नहीं करती है, क्योंकि कभी कैसा प्ररु कभी कैसा कार्य उत्पन्न होता दीख पड़ता है । तथा एक और भी बात है, कि जो दूसरे तीसरे आदि क्षण में नियति ने कार्य करने हैं, वो सर्व कार्य प्रथम समय ही में उत्पन्न कर लेवे, क्योंकि तिस नियति का जो नित्य करणास्वभाव द्वितीयादि क्षण में है, सो स्वभाव प्रथम समय में भी विद्यमान है । जे कर प्रथम क्षण में द्वितीयादि क्षणवर्त्ती कार्य करने की शक्ति नहीं, तो द्वितीयादि क्षण में भी कार्य न होना चाहिये, क्योंकि प्रथम द्वितीयादि क्षण में कुछ भी विशेष नहीं है । जेकर प्रथम द्वितीयादि क्षण में नियति के रूप में परस्पर विशेष मानोगे तब तो जोरा जोरी नियति के रूप में श्रनित्यता आगई । क्योंकि "अतादवस्थ्यमनित्यतां क्रमः इति वचन प्रामाण्यात्" - जो जैसा है वो तैसा न रहे, [इस वचन प्रमाण से] उस को हम अनित्य कहते हैं ।
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प्रतिवादी:- निर्यात नित्य, विशेष रहित भी है, तो भी तिस तिस सहकारी की अपेक्षा करके कार्य उत्पन्न करतो काल वाले है । अरु जो सहकारी हैं, सो प्रतिनियत देश, हैं, तिस वास्ते सहकारियों के योग से कार्य क्रम करके होता है ।