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चतुथ परिच्छेद
२४५. परन्तु भगवान् का अभिप्राय किसी ने नहीं जाना । जैसे प्रार्यदेशोत्पन्न पुरुष के शब्द उच्चारण से म्लेच्छ भी वैसा शब्द उच्चार सकता है; परन्तु तात्पर्य कुछ नहीं जानता । ऐसे ही महावीर के शब्द के अनुवादक गौतमादिक हैं, परन्तु महावीर का अभिप्राय नहीं जानते । इस वास्ते सम्यग् ज्ञान किसी मत में भी सिद्ध नहीं होता है । एक तो, ज्ञान होने से पुरुष अभिमान से बहुत कर्म बांध कर दीर्घ संसारी हो जाता : है, दूसरे, सम्यग् ज्ञान किसी मत में है नहीं, इस वास्ते अज्ञान ही श्रेय है।
७.
सो अज्ञानी सतसठ प्रकार के हैं । तिन के जानने का यह उपाय है, कि जीवादिक नव पदार्थ किसी पट्टादिक ( पट्टी आदि) में लिखने, अरु दशमे स्थान में उत्पत्ति लिखनी । तिन जीवादि नव पदार्थों के हेठ न्यारे न्यारे सत्त्वादिक सात पद स्थापन करने, सो यह हैं:-१. सत्त्व, २. असत्व, ३. सदसत्त्व, ४. अवाच्यत्त्व, ५ सदवाच्यत्व, ६. असदवाच्यत्त्व, सदसदवाच्यत्व । १. सत्त्व-स्वरूप करके विद्यमान पना, २. असत्त्व- पररूप करके अविद्यमान पना, ३. सदसत्त्व -- स्वरूप से विद्यमानपना और पररूप करके अविद्यमान पना । यद्यपि सर्व वस्तु स्वपररूप करके सर्वदा ही स्वभाव से सदसत् स्वरूप वाली है, तो भी उस की किसी जगे कदाचित् कुछ अदभुत रूप करके विवक्षा की जाती है । तिस हेतु से यह तीन विकल्प होते हैं, तथा ४. प्रवाच्यत्व - सोई सत्त्व, असत्त्व
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