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चतुर्थ परिच्छेद
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भी चूने की भीत के ऊपर वालु-रेत की मुष्टि के सम्बन्धवत् स्पर्शमात्र है; परन्तु बन्ध नहीं होता है । इस वास्ते अज्ञान ही मोक्षगामी पुरुषों को अंगीकार करना श्रेय है, परन्तु ज्ञान अंगीकार करना श्रेय नहीं है । श्रज्ञानवादी कहते हैं, कि जेकर ज्ञानका निश्चय करने में सामर्थ्य होवे, तो हम ज्ञान को मान भी लेवें । प्रथम तो ज्ञान सिद्ध ही नहीं हो सकता है, क्योंकि जितने मतावलंबी पुरुष हैं, सो सर्व परस्पर भिन्न ही ज्ञान अंगीकार करते हैं, इस वास्ते क्यों कर यह निश्चय हो सके, कि इस मत का ज्ञान सम्यग् है, अरु इस मत का ज्ञान सम्यग नहीं है । जेकर कहोगे कि सकल वस्तु के समूह को साक्षात् करने वाले ज्ञान से युक्त जो भगवान् है, तिस के उपदेश से जो ज्ञान होवे सो सम्यग् ज्ञान है । अरु जो इस के बिना दूसरे मत हैं, उस का ज्ञान सम्यग् नहीं है । क्योंकि उन के मत में जो ज्ञान है, सो सर्वज्ञ का कथन किया हुआ नहीं है ।
अज्ञानवादी कहते हैं कि यह तुमारा कहना तो सत्य है, किंतु सफल वस्तु के समूह का साक्षात् करने वाला ज्ञानी, क्या सुगत, विष्णु, ब्रह्मादिक को हम मानें ? किवा भगवान् महावीर स्वामी को ? फिर भी वोही संशय रहा, निश्चय न हुआ, कि कौन सर्वज्ञ है ? जेकर कहोगे कि जिस भगवान् के पादारविंद युगल को इन्द्रादि सर्व देवता, परस्पर अहं पूर्वक ( मै पहिले कि मै पहिले ) विशिष्ट विशिष्टतर विभूति