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चतुर्थ परिच्छेद
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चौथा विकल्प नियतिवादियों का है। नियतिवादी ऐसे कहते हैं, कि नियति एक तत्त्वान्तर है, जिस की सामर्थ्य से सर्व पदार्थ अपने अपने स्वरूप करके वैसे वैसे हो होते हैं, अन्यथा नहीं होते हैं -- एतावता जो पदार्थ जिस काल में जिस करके होता है, सो पदार्थ तिस काल में तिस करके नियत रूप से ही होता दीखता है, अन्यथा नहीं । जेकर ऐसा न मानें तो कार्यकारणभाव की व्यवस्था कदापि न होवेगी । तिस वास्ते कार्य की नियतता से प्रतीत होने वाली जो नियति है, तिस को कौन प्रमाण पंथ का कुराल पुरुष है, जो वाध सकता है ? जे कर नियति बाधित हो जावेगी, तो और जगे भी प्रमाण मिथ्या हो जायेंगे । तथा चोक्तम्:
नियतिवादी
का मत
नियतेनैव रूपेण, सर्वे भावा भवंति यत् । ततो नियतिजा होते, तत्स्वरूपानुवेधतः ॥ यद्यदैव यतो यावत्, तत्तदैव ततस्तथा ॥ नियतं जायते न्यायात् क एनां बाधितुं क्षमः ||
[ शा० स०, स्त० २ श्लो० ६१, ६२ ]
इन दोनों श्लोकों का अर्थ उपर लिख दिया है । पांचमा विकल्प, स्वभाववादियों का है । वो स्वभाव