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तृतीय परिच्छेद
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अर्थ:- इस में से दो पदों का अर्थ तो ऊपर दिया है, अगले दो पदों का अर्थ लिखते हैं । साधु को यह करने योग्य नहीं, ऐसे जानता भी है, तो भी उस काम को जो करे, सो पहला प्रभोग वकुश, और जो अजानपने करे सो दूसरा प्रनाभोग कुश, मूल गुण और उत्तर गुणों में जो छिप कर दोष लगावे, सो तीसरा संवृत बकुरा, जो मूल गुण और उत्तर गुणों में प्रगट दोष लगावे सो चौथा असंवृत वकश, अरु नेत्र, नासिका, और सुख प्रादिक का जो मल दूर करें, सो पांचमा सूक्ष्म बकुरा जानना ।
अथ उपकरण वकुरा का स्वरूप लिखते हैं:जो उवगरणे वउसो, सो धुवइ पाउसेऽवि वत्थाई । इच्छइ य लण्हयाई, किचि विभूसाइ भुंज य ॥ [पं० नि०, गा० १४]
अर्थः- जो उपकरण वकुश है, सो प्रावृट् - पावस ऋतु के विना भी चार जल से वस्त्र धोता है । पावस ऋतु में तो सर्व गच्छवासी साधुओं को आज्ञा है, कि साधु एक वार वर्षा से पहिले थप सर्व उपकरण क्षार जल से धो लेवे, नहीं तो वर्षाऋतु में मल के संसर्ग से निगोदादिक जीवों की उत्पत्ति हो जावेगा । परन्तु यह जो वकुश निग्रंथ है, सो तो पावसऋतु विना अन्य ऋतुओं में भी क्षार जल से वस्त्रादिक धो लेता है। तथा वकुश निर्बंथ, सुंदर, सुकुमाल वस्त्र भी वांछता है, और विभूपा - शोभा के वास्ते पहरता है।