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तृतीय परिच्छेद भी नहीं होता । मूल गुण भंग में दो दृष्टांत हैं, उत्तरगुण भंग में मण्डप का दृष्टांत है। निश्चयनय में एक व्रत भंग हुआ, तो सर्व व्रत भंग होजाते हैं, परन्तु व्यवहार नयके मत में जो व्रत भंग होवे, सोई भंग होवे, दूसरा नहीं । इस वास्ते बहुत अतिचार के लगने से भी संयम नहीं जाता, परन्तु जो कुशील सेवे, अरु धन रक्खे और कच्चा-सचित्त पानी पीवे, प्रवचन की उपेक्षा करे वो साधु नहीं । जहां तक छेद प्रायश्चित लगे, तहां तक संयम सर्वथा नहीं जाता । इस वास्ते जो कोई इस काल में साधु का होना न माने, सो मिथ्यादृष्टि है। क्योंकि स्थानांग सूत्र में लिखा है, कि अतिचार बहुत लगते हैं और आलोचना-प्रायश्चित यथार्थ रूप से कोई लेता देता नहीं, इस वास्ते साधु कोई नहीं है; ऐसे जो कहता है वो चरित्र भेदिनी विकथा का करने वाला है । तथा श्रीभगवती सूत्र के पच्चीसमे शतक के छठे उद्देश में संग्रहणीकार श्रीमदभयदेवसूरि ने इन दोनों निग्रंथों का जो स्वरूप लिखा है, सो इहां भाषा में प्रगट लिखा जाता है।
वसं सवलं कव्वुरमेगटुं तमिह जस्स चारित्तं । अइयारपंकभावा सो वउसो होइ निग्गंथो ।।
[पं० नि, गा० १२]