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तृतीय परिच्छेद इह नाणाइकुसीलो, उवजीवं होइ नाणपभिईए। अहमुहुमो पुण तुस्सइ, एस तवस्सि चि संसाए ॥
[पं०नि०, गा० २२-२४] अर्थः-शील-चारित्र जिस का कुत्सित है,
सो कुशील निग्रंथ । इस के दो भेद हैं । कुशील निग्रंथ एक प्रतिसेवनाकुशोल, दूसरा कषायका स्वरूप कुशील । प्रतिसेवना-विपरीत आराधना
करके जिस का शोल कुत्सित हो सो प्रतिसेवनाकुशोल, और संज्वलन रूप कषायों से जिस का शील कुत्सित हो सो कषायकुशील है। इन दोनों के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और यथासूक्ष्म, ये पांच भेद हैं। यहां नानादिप्रतिसेवनाकुशील वो है, जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अरु तप, इन चारों को आजीविका के वास्ते करे। तथा यह तपस्वी है, इत्यादि प्रशंसा को सुन के जो बहुत खुशी होवे, सो पांचमां यथासूक्ष्मप्रतिसेवनाकुशील जानना । तथा जो ज्ञान, दर्शन, अरु तप का संज्वलन कपाय के उदय से अपने २विपय में उपयोग करे, सो झानादिकपायकुशील जानना । जो चारित्रकुशील है,स कषाय के वश हो करके शाप दे देता है । मन करके जो क्रोधादि को सेवे, सो यथासूक्ष्मकषायकुशील है। अथवा कषायों करके जो ज्ञानादिकों को विराधे, सो ज्ञानादिककुशील