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जैनतत्त्वादर्श से प्रतप्त प्राशुक-होवे जीव रहित होवे, जिस में स्त्रीपुरुष का संघट्ट-संघर्ष न होवे, रस्तेमें जीवों की रक्षा निमित्त अथवा अपने शरीर की रक्षा निमित्त, पग के अंगूठे से लेकर चार हाथ प्रमाण भूमि को आगे से देख कर चलना, इस का नाम ईर्यासमिति है । इस रीति से जो साधु चले, तथा दूसरा कोई काम करे, तिस काम में कदाचित कोई जीव मर भी जावे, तो भी साधु को पाप नहीं लगता, क्योंकि उस का उपयोग बहुत शुभ है । तथा पापसहित भाषाकठोर भाषा-जैसे कि तूं धूर्त है, कामी है, राक्षस है, ऐसे शब्दों को न कहे । जो शब्द जगत् में निंदनीय होवे, सो न बोले, किन्तु पर को सुखदायी, बोलने में थोड़ा (मित) अरु बहुत प्रयोजनों को साधने वाला, संदेह रहित-ऐसा वचन वोले। ए दूसरी भाषा समिति है । तथा वैतालीस दूषण रहित पाहारादिको जो ग्रहण करना, सो तीसरी एषणा समिति है । तथा प्रासन, संस्तारक, पीठ, पलक, वस्त्र, पात्र, दंडादिक नेत्रों से देख कर उपयोग पूर्वक लेना, अरु रखना,सो चौथी प्रादाननिक्षेप समिति है । तथा पुरीष,प्रश्रवण,थूक,नाक का श्लेष्म, शरीरमल, वस्त्र, अन्न, पानी, जो शरीर का अनुपकारी होवे, इन सब को जीव रहित भूमि में ' स्थापन करना, यह पांचमी परिष्ठापना समिति है। । ___ अब वारी भावना लिखते हैं:१. अनित्य भावना, २. अशरण भावना, ३. संसार भावना, ४.