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રદ્દ
जैनतत्त्वादर्श है; अरु कोद्रवादि के पलाल तथा गर्त में प्रक्षेप करने-डालने से भी पक्कं हो जाता है, ऐसे ही निर्जरा भी दो प्रकार को है। हमारे कर्मों की निर्जरा होवे ऐसे प्राशय वाले पुरुष जो तप आदि करते हैं, उनों के सकाम निर्जरा होती है। अरु एकेंद्रिय जो जीव हैं, तिन को विशेष ज्ञान तो नहीं परन्तु शीतोष्ण, वर्षा, दहन, छेदन, भेदनादि के द्वारा सदा कष्ट भोगने से जो कर्म की निर्जरा होती है, उस का नाम अकाम निर्जरा है। ऐसे तप आदि करके जो निर्जरा की वृद्धि करे, सो नवमी निर्जरा भावना जाननी। __दशमी लोकस्वभाव भावना कहते हैं: यह पृथ्वी, चन्द्र,
सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारे अरु लोकाकाश, नरक, स्वर्ग आदि 'सर्व को मिला के एक लोक कहने में आता है । तिस संम्पूर्ण लोक का आकार जैन मत के सिद्धांत में ऐसे लिखा है। जैसे कोई पुरुष जामा पहिर के, कमर में दोनों हाथ लगा कर खड़ा होवे, तब जैसा उस का आकार है, ऐसा ही लोक का आकार है । जो षड्द्रव्य करके पूर्ण है, उत्पत्ति, स्थिति, अरु व्यय, इन तीनों स्वरूपों करी युक्त है, अनादि अनंत है, किसी का रचा हुआ नहीं है, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यग् लोक, इन तीन स्वरूपों में बटा हुआ है । सब जीव, पुद्गल इसी के अन्दर हैं, बाहिर नहीं। लोक से बाहिर तो केवल एक आकाश ही है, वो आकाश भी अनन्त है। इसी आकाश का नाम जैन शास्त्रों में अंलोकाकाश लिखा है । अंधोलोक