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जैनतत्त्वादर्श करते हैं । तथा सर्वज्ञ अहंत भगवन्त, गुरु,सिद्वान्त-द्वादशांग, चार प्रकार का संघ, इन सर्व का जो गुणानुवाद-गुण कीर्तन करते हैं, अरु सत्य, हितकारी वचन बोलते हैं, . वे जीव शुभ कर्म का उपार्जन करते हैं । तथा श्रीसंघ, गुरु सर्वज्ञ, धर्म अरु धर्मी इन सब का जो अवर्णवाद बोलते हैं, झूठे मत का वा कपोलकल्पित मत का जो उपदेश करते हैं, वो जीव अशुभ कर्म का उपार्जन करते हैं। तथा जो पुरुष वीतराग देव की पुष्पादिकों से पूजा करे तथा साधु की भक्ति, विश्रामण प्रमुख करे, तथा काया को पाप से गुत करेसुरक्षित रखे, वो जोर शुभ कर्म का उपार्जन करता है तथा जो जीव, मांस भक्षण, सुरापान, जीवघात, चोरी, जुआ, परस्त्रीगमनादिक करे, वो अशुभ कर्म उपार्जन करता है। ए अनुक्रम से मन, वचन, काया करके शुभाशुभ . पाश्रव उपार्जन करता है । इस प्रकार से यह आश्रव भावना जो जीव भावे है, सो अनर्थ परंपरा को त्याग देता है, अरु महानन्दस्वरूप, दुःख'दावानल को मेघ समान अरु मोक्ष की देनेहारी शर्मावलि (सुख परम्परा) अङ्गीकार करता है । इस तरे से सातमी आश्रव भावना भावे ।
आठमी संवरभावना कहते है:-पाश्रवों का जो निरोध करना, तिस को संवर कहते हैं, सो संवर दो प्रकार का होता है, एक देश संवर । दूसरा सर्व संवर उस में सर्व प्रकार से संवर तो अयोगी केवली में होता है, अरु जो देश से