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तृतीय परिच्छेद
२१५ अंगुली निर्देश, ऊंचा होना, खांसना, हुंकारा करना, पत्थर फैकना आदि हेतुओं से अपने किसी कार्य विशेष की सूचना करने का त्याग करना, ए प्रथम वचन गुप्ति । क्योंकि जब चेष्टा द्वारा सब कुछ सूचन कर दिया, तब मौन रहना व्यर्थ है । दूसरे के प्रश्न का उत्तर देना, लोक अरु आगम से विरोध न होवे तैसे और वस्त्रादिक से मुख का यत्न करके वोलना, ए दूसरी वचन गुप्ति । इन दोनों भेदों करके वचन का निरोध, अरु सम्यक् भापणरूप वचन गुप्ति जाननी । __कायागुप्ति दो प्रकार से है । १. चेष्टा का निषेध, २. आगम के अनुसार चेष्टा का नियम करना। तहां देवता और मनुप्यादि के उपसर्ग मे सुधा तृषादि परिषहों के उत्पन्न होने से कायोत्सर्गादि के द्वारा शरीर को निश्चल करना, तथा अयोगी अवस्था में सर्वथा काया की चेष्टा का निरोध करना, ए प्रथम कायगुप्ति है । तथा गुरुप्रच्छन, शरीर संस्तारक, भूम्यादि का प्रतिलेखन, प्रमार्जनादि क्रियाकलापका जैसे शास्त्र में विधान है, उसी के अनुसार साधु को शयन आदि करना चाहिये । अतः शयन, श्रासन, ग्रहण और स्थापन प्रादि कृत्यों में काया की स्वच्छन्द चेया का त्याग और मर्यादित चेष्टा का स्वीकार करना दूसरी कायगुप्ति है । - अथ अभिग्रह-प्रतिज्ञा लिखते हैं । सो अभिग्रह द्रव्य, क्षेत्र, काल अरु भाव करी चार प्रकार का है, इस का विस्तार