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जैनतत्त्वादर्श तो फिर इस काल के जीव वैसी उत्सर्ग वृत्ति कैसे धार सकते हैं ?
प्रश्नः-जे कर वैसी वृत्ति इस कालमें वो नहीं रख सकते, तो उन को साधु भी काहेको कहना चाहिये ?
उत्तर:-यह तुमारा कहना बहुत बे समझी का है, क्योंकि व्यवहार सूत्र भाष्य में ऐसे लिखा है:पोक्खरिणी आयारे,प्राणयणा तेण गाय गीयत्थे । आयरियम्मि उ एए, आहरणा हुति नायव्वा ॥ सत्थपरिणाछक्कायअहिगमो पिंड उत्तरज्झाए । रुक्खे वसहे जूहे, जोहे सोही य पुक्खरिणी ॥
[उ०३ गा० १९८-१९६] इन दोनों द्वार गाथाओं का व्याख्यान भाष्यकार ने पंदरां गाथा करके किया है । जेकर गाथा देखने की इच्छा होवे, तो व्यवहारभाष्य में देख लेनी, इहां तो उन गाथाओं का भाषा में भावार्थ लिख देते हैं.-१. जैसी पूर्वकाल में सुगन्धित फूलों वाली पुष्करिणियां-बावड़ियां थीं; वैसे फूलों वालियां अब नहीं हैं, तो भी सामान्य पुष्करिणियां तो हैं । लोग इन सामान्य वाड़ियों से भी अपना कार्य करते हैं । २. प्रथम संपूर्ण प्राचारप्रकल्प नवमे पूर्व में था, उस नवमे पूर्व से उद्धार करके पूज्यपाद वैशाख गणी ने निशीथ को रचा, तो क्या उस निशीथ को प्राचारप्रकल्प न कहना