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जैनतत्त्वादर्श -- * प्रवचनसारोद्धार वृत्ति में है। __अब करणसत्तरी की गणना कहते हैं । यद्यपि आहारादिक के बैतालीस दूषण हैं, तथापि पिंड, शय्या, वस्त्र, पात्र, ए चार ही वस्तु : सदोष ग्रहण नहीं करनी । इस वास्ते संख्या में ए चार ही दूषण लिये हैं। तथा पांच समिति, बारां भावना, बारां प्रतिमा, पांच इन्द्रियनिरोध, पच्चीस प्रतिलेखना, तीन गुप्ति, चार अभिग्रह, ए सर्व एकठे करने से सत्तर भेद करणसत्तरी के हैं। . .
प्रश्नः-चरणसत्तरी. और करणसत्तरी, ए दोनों में क्या विशेष है ?
उत्तरः-जो नित्य करना सो चरण, अरु जो प्रयोजन होवे तो कर लेना, और प्रयोजन नहीं होवे तो न करना, सो करण । यह इन का भेद है।।
यह जैन मत के गुरुतत्त्व का स्वरूप संक्षेप से लिखा है, विस्तार से तो उस का स्वरूप लाखों श्लोकों में भी पूरा नहीं हो सकता। इस वास्ते जेकर विशेष जानने की इच्छा होवे, तो श्रोधनियुक्ति, प्राचारांग, दशवैकालिक, बृहत्कल्पभाष्य वृत्ति, पंचकल्पचूर्णि, जीतकल्पवृत्ति,. महाकल्पसूत्र, ‘कल्पसूत्र, निशीथभाष्यंचूर्णि, महानिशीथसूत्र, इत्यादि पदविभाग सामाचारी के शास्त्र देख लेने।'
प्रश्नः-जैसा जनमत के शास्त्रों में गुरु का स्वरूप लिखा .mmmmmmmmmmmmmmirmirmmmmmmwwwmirrrrima
* द्वा० ६७ गा० ५६६ की व्याख्या में ।'
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