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जैनतत्त्वादर्श अथ तीन गुप्ति लिखते हैं-मनोगुप्ति, वचन गुप्ति,
कायागुप्ति, ए तीन गुप्ति हैं। इन का स्वरूप तीन गुप्ति ऐसे है । अशुभ मन, वचन, काया का निरोध
करना, अरु शुभ मन, वचन, काया की प्रवृत्ति करनी। इन में से मनोगुप्ति तीनप्रकार की है । प्रात, रौद्र ध्यानानुबंधी कल्पना का वियोग, ए प्रथम मनोगुप्ति । शास्त्रानुसारी, परलोक के साधने वालो धर्मध्यानानुबन्धी माध्यस्थ परिणति, ए दूसरी मनोगुप्ति । सम्पूर्ण शुभाशुभ मनोवृत्ति का निरोध, अयोगी गुणस्थान अवस्था में स्वात्मारामरूपता, ए तीसरी मनोगुप्ति ।
वचनगुप्ति दो प्रकार की है। उस में मुख नेत्र भ्रविकार,
साफ करना और व्यवस्था पूर्वक रखना, यह पडिलेहणा, प्रतिलेखना या प्रेक्षा कहलाती है । यह साधु को प्रतिदिन तीन दफा करनी होती है-प्रातःकाल, तीसरे पहर और उद्घाटपौरुषी अर्थात् पौने पहर में । परन्तु इन तीनों समयों की प्रतिलखना में प्रतिलेख्य वस्तुओं में कुछ अन्तरन्यूनाधिकता रहती है । यथा
"प्रतिदिनं साधुजनस्य तिखः प्रतिलेखनाः कर्तव्या भवन्ति, तद्यथा-एका प्रभाते, द्वितीया अपराह्ने -तृतीय प्रहरान्ते, तृतीया उद्घाटपौरुष्या समयभाषया पादोनप्रहरे" इत्यादि ।
प्र० सा०, गा० ५९० की वृत्ति] नोट:-अधिक जिज्ञासा के लिये देखो प्रवचनसारोद्धार तथा पिंडनियुक्ति आदि ग्रन्थ.।