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तृतीय परिच्छेद एकः पंचसु सक्तः, प्रयाति भस्मान्ततां मूढः ॥२॥ तुरगैरिख तरलतरै-दुर्दातैरिद्रियैः समाकृष्य ।।
उन्मार्गे नीयंते, तमोघने दुःखदे जीवाः ॥ ३॥ ..इन्द्रियाणां जये तस्मा-धनः कार्यः सुवुद्धिभिः । तज्जयो येन भविना, परत्रेह च शर्मणे ॥४॥
[प्रव० सा०, गा० ५८६ की वृत्ति में उद्धृत] .. अथ * प्रतिलेखना जैन साधुओं में प्रसिद्ध है, इस वास्ते नहीं लिखी।
ही मूर्ख-परमार्थ को न जानते हुए नष्ट हो जाते हैं । फिर एक प्राणी जो कि पाचों ही विषयों में आसक्त होवे, उस मूर्ख की क्या दशा होगी ! अर्थात् वह सर्वथा नष्ट हो जायगा.॥२॥
जिस प्रकार चचल, हठी रोड़े अपने सवार को विकट मार्ग में ले जा कर पटक देते हैं। इसी प्रकार ये चपल इन्द्रिया भी प्राणी को कुमार्ग की तरफ बल पूर्वक खीच ले जाती है ॥३॥
. अत: बुद्धिमान् मनुष्यों को इन इन्द्रियों के जय करने में सर्वदा यत्नशील रहना चाहिये । जिस से कि इहलोक और परलोक मे सुख की प्राप्ति हो ॥४॥
* प्रतिलेखना के २५ भेद है। साधु के वस्त्र, पात्र आदि जो धर्मोपकरण संयमनिर्वाह के लिये जिन के रखने की शाखों में आज्ञा है] हैं; उन की शास्त्रविधि पूर्वक देख भाल करनी-उन को झाडना,