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तृतीय परिच्छेद रूपता का विचार करके वुद्धिमान् पुरुष, इस शरीर का ममत्व न करे। इस तरे से जीव छठी भावना भावे । ___ सातमी प्राश्रव भावना कहते हैं:-मन, वचन, और काया के योग करके शुभाशुभ कर्म, जो जीव ग्रहण करते हैं, तिस का नाम श्राश्रव है । जिनेश्वर देव कहते है कि *सर्व जोवों विषे मैत्री भावना, गुणाधिक जीव में प्रमोद भावना, अविनीत शिष्यादिक में मध्यस्थ भावना, दुःखी जीवों में कारुण्य भावना, इन चारों भावनाओं करके जिस पुरुष का अन्तःकरण निरन्तर वासित होवे, वो पुण्यवान जीव वैतालीस प्रकार का पुण्य उपार्जन करता है । तथा रौद्रध्यान, प्रार्तध्यान, पांच प्रकार का मिथ्यात्व, सोलां प्रकार का कपाय, पांच प्रकार का विषय, इनों करके जिनों का मन वासित है, वे जीव, व्यासी प्रकार का अशुभ कर्म उपार्जन
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* सत्त्वेपु मैत्री गुणिषु प्रमोट, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभाव विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव !
[सामायिकपाठ, श्लो०१] + आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, आभिनिवेशिक, साशयिक, अना. भोगिक-ये मिथ्यात्व के पाच भेद है। [विशेष के लिये देखो गुणस्थान क्रमारोह, प्रथम गुणस्थान ।]
+ क्रोध, मान; माया, लोभ-इन चार कषायों में से प्रत्येक के क्रमशः अनन्तानुवन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, सज्वलन, ये चार चार भेद होने से सोलह प्रकार का कषाय हो जाता है ।