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तृतीय परिच्छेद
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है, अरु अकेला ही फल भोगता है । तथा इस जीव ने बहुत
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कष्ट करके जो धन *उपाय है, सो धन तो स्त्री, मित्र, पुत्र, भाई प्रमुख खा जावेंगे, थरु जो पाप कर्म उपाय है, उस का फल तो करने वाला जीव अकेला ही नरक, तिर्यच गति में जा कर भोगता है । देखो यह कैसा आश्चर्य है ! तथा यह जीव जिस देह के वास्ते रात दिन फिरता है, श्ररु दीनपना अवलम्वन करता है, धर्म से भ्रष्ट होता है, अपने हित को ठगाता है, न्याय से दूर होता है, सो देह इस श्रात्मा के साथ एक पग तक भी परभव में न चलेगी । तो फिर यह देह क्या करेगी ? क्या साहाय्य देगी ? अरु स्वजन जो हैं, सो अपने २ स्वार्थ में तत्पर हैं, वास्तव में तेरा कोई भी नहीं है । इस वास्ते हे वुद्धिमान् ! तू अपने हित के वास्ते धर्म करने में प्रयत्न कर। इस तरे से जीव चौथी एकत्व भावना भावे ।
पांचमी अन्यत्व भावना कहते हैं: - जीव इस देह को छोड़ कर परलोक को जाता है, इस वास्ते इस शरीर से जीव भिन्न है, तो फिर इस शरीर पर नाना प्रकार का सुगन्धित लेप करना व्यर्थ है । तथा इस शरीर को कोई दंडादि करके 'मारे तो साधु को समता रस पीना चाहिये, क्रोध न करना चाहिये । जो पुरुष अन्यत्वभावना से भावित है, तिस को शरीर, धन. पुत्रादिक के वियोग होने से भी शोक नहीं होता । * एकत्रित किया है ।
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