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तृतीय परिच्छेद
१६६ प्रतः स्त्री, मित्र, पुत्रादिकों के स्नेहरूप भूत के दूर करने के वास्ते शुद्धमति जीव अशरण भावना को भावे ।
तीसरी संसार भावना कहते हैं:-बुद्धिमान तथा बुद्धि रहित,सुखो, दुःखो रूपवान् तथा कुरूपवान, स्वामी तथा दास, प्यारा तया वैरी,राजा तथा प्रजा,देवता, मनुष्य,तिर्यक्, नारक, इत्यादिक अनेक प्रकार के कर्मों के वश से सांग धार कर, इस संसार रूप अखाडे में यह जीव नाटक करता है । तथा अनेक प्रकार के पापों-महारंभ, मांसभक्षण, मदिरापानादिक करके महा अंधकार युक-जहां कुछ नहीं दीखता, ऐसी नरक भूमिका में जा पड़ता है। तिहां पर अङ्गच्छेदन, अग्नि में जलनादि क्लेश रूप महा दुःख जो जीव को होते हैं, उन दुःखों को केवली भी कथन नहीं कर सकता। यह प्रथम नरक गति कही। तथा छल, झूठादि कारणों से प्राणी तिर्यंच गति में सिह, वाघ, हाथी, भृग, बैल, वकरे आदि के शरीर धारण करता है। अरु तिस तिर्यंच गति में सुधा, तृा, वध, बन्धन, ताडन, रोग, हल प्रमुख में वहना-जुतना इत्यादिक जो दुःख जीव सदा सहता है, वो कौन कहने को समर्थ है ? यह दूसरी तिर्यग्गति कही । तथा मनुष्यों में कितने हो खाद्य, अखाद्य में विवेक शून्य हैं, मनमें लजा नहीं रखते हैं, अरु गम्यागम्य का विचार नहीं करते हैं। जो अनार्य मनुष्य हैं, वो तो निरंतर जीवघात, मांसभक्षण, चोरी, परस्त्रीगमन प्रमुख कारणों करके वड़ा भारी