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तृतीय परिच्छेद
२०७ में न्यारी न्यारी नीचे ऊपर सात पृथ्वी हैं, उन में नरकवासी जीव रहते हैं । तथा किसी जगे भवनपति अरु व्यतर भी रहते हैं। तिरछे लोक में मनुष्य, तिर्यंच और व्यंतर भी रहते हैं । ऊर्ध्व लोक में देवता रहते हैं । विशेष करके जो लोकस्वरूप देखना होवे, तो लोकनाडीद्वात्रिशतिका से तथा लोकप्रकाश ग्रन्थ से जान लेना । इस तरे लोक के स्वरूप का जो चितन करना है, सो दशमी लोक स्वभाव भावना है।
ग्यारवीं वोधिदुर्लभ भावना कहते हैं:-पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, इन में अपने करे हुए क्लिष्ट कर्मों करके जीव भ्रमण करता है । इस भयानक संसार में अनंतानंत पुद्गलपरावर्तन करता हुआ यह जीव अकाम निर्जरा फरके, अरु पुण्य उपार्जन करके, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिद्रिय, पंचेद्रिय रूप स भाव को पावे है । फिर आर्यक्षेत्र, सुजाति, भला कुल, रोगरहित शरीर, संपदा, राज्यसुख, हलके कर्म और तत्वातत्त्व के विवेचन करने वाली, बोध चीज के बोने वाली, कर्मक्षय करके मोक्ष सुखों की जननी, ऐसी श्री सर्वज्ञ अर्हत की देशना मिलनी बहुत दुर्लभ है । जेकर जीव एक वार भी सम्यक्त्वरूप वोधि को प्राप्त कर लेता, तो इतने काल तक कदापि संसार में पर्यटन न करता। जो अतीत काल में सिद्ध हुए, जो वर्तमान में सिद्ध होते है, अरु जो अनागत काल में सिद्ध होंगे, वे