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जैनतत्त्वादर्श इस तरे से जीव पांचमी भावना भावे ।
छठी अशुचि भावना लिखते हैं:-जैसे लूण की खान में जो पदार्थ पड़ता है, वो सर्व लूण हो जाता है, तैसे ही इस काया में जो कुछ आहार पड़ता है, सो सर्व मल रूप होजाता है, ऐसी यह काया अशुचि है । तथा इस काया की उत्पत्ति भी अशुचि पदार्थ से ही है । रुधिर अरु शुक्र इन दोनों के मिलने से गर्भ उत्पन्न होता है । वह जरा करके वेष्टित होता है। जो कुछ माता खाती है, उसी के रस से वो गर्भ वृद्धि को प्राप्त होता है । अस्थि मज्जा आदि धातुओं करी पूर्ण है । ऐसी देह को कौन बुद्धिमान् शुचि मानता है ? तथा जो सुस्वादु, शुभ गंध वाले मोदक, दही, दूध, इतुरस, शालि, श्रोदन, द्राचा, पापड़, अमृती, घेवर, आम्र प्रमुख पदार्थ खाये जाते हैं, सो तत्काल मलरूप हो जाते हैं। ऐसी अशुचि काया को महा मोहांध पुरुष ही शुचि माने हैं । तथा पानी के एक सौ घड़ों से स्नान करके सुगन्धित पुष्प, कस्तूरी प्रमुख द्रव्यों से बाहिर की त्वचा को कितनेक काल तक मुग्धजीव शुचिअरु सुगन्धित कर लेते हैं, परन्तु मध्य भाग में रहा हुआ विष्टे का कोठा कैसे शुचि होवे ? तथा चन्दन, कस्तुरी, कपूर, अगरु, कुंकुम प्रमुख सुगन्धित द्रव्यों का शरीर के साथ जब सम्बन्ध होता है, तब ए पूर्वोक्त सर्व वस्तु क्षण मात्र में दुर्गन्ध्र रूप हो जाती हैं। फिर इस काया को कौन बुद्धिमान् शुचि मान सकता है ? ऐसे शरीर की अशुचि