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तृतीय परिच्छेद
१८३ प्रय बारां प्रकार का तप लिखते हैं:अणसणमूणोयरिया, वित्तिसंखेवणं रसञ्चाओ । कायकिलेसो संलीणया य वज्झो तवो होइ ।। पायच्छित्तं विणओ वेयावचं तहेव सज्झाओ ।
माणं उस्सग्गोविय, अभितरओ तवो होइ ॥ [प्रव० सा०, गा० ५६०-५६१, दशवै० नि०, गा०, ४७-४८] भर्थः-१. व्रत करना, २. थोड़ा खाना, ३. नाना प्रकार
के अभिग्रह करने, ४. रस दूध, दही, घृत, वारह प्रकार तैल, मीठा, पक्वान्न, का त्याग करना, ५. • का तप कायक्लेश-वीरासन, दण्डासन आदि के
द्वारा अनेक तरे का कायक्लेश करना, ६. पांचो इन्द्रियों को अपने अपने विषयों से रोकना, ए छः प्रकार का वाह्य तप है । १. प्रथम जो कुछ अयोग्य काम करा अरु पीछे से गुरु के श्रागे जैसा करा था, वैसे ही प्रगटपने कहना, आगे को फिर वो पाप न करना, अरु प्रथम जो करा है, उस की निवृत्ति के वास्ते गुरु से यथा योग्य दण्ड लेना, इस का नाम प्रायश्चित है । २. अपने से गुणाधिक की विनय करनी । ३. वैयावृत्य-भक्ति करनी । ४. (१) आप पढ़ना अरु दूसरों को पढ़ाना, (२) उस में संशय उत्पन्न होवे, तो गुरु को पूछना, (६) अपने सीखे हुये को वार वार