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तृतीय परिच्छेद
१६१ कदाचित् दृष्टि पड़ जाय, तो मन में ऐसा चिन्तन न करे, कि लोचन बडे सुन्दर हैं ! नासिका बहुत सोधी है ! वांछनीय कुच हैं ! क्यों कि यदि स्त्री के पूर्वोक्त अङ्गोपांग का एकाग्र रस में मग्न होकर ब्रह्मचारी चितवन करे, तो अवश्य उस का मन मोह, तथा विकार को प्राप्त होवे ।
५. कुटुंतर-कुड्यांतर-जहां भींत के, टट्टी के, कनात के, अन्तर-चीच में होने से मैथुन करते हुवे स्त्री पुरुष का शब्द सुनाई देवे, तहां ब्रह्मचारी-साधु न रहे। ___१. पुबकीलिय-पूर्वक्रीडित-साधु ने पूर्व-गृहस्थ अवस्था में स्त्री के साथ जो विपय भोग क्रीडा करी होवे, तिस को स्मरण न करे; जेकर करे, तो कामाग्नि प्रज्वलित हो जाती है। ___७. पणीय-प्रणीत-साधु अति चिकना मीठा दूध, दधि प्रमुख, अति धातुपुष्ट करने वाला आहार निरंतर न करे; जेकर करे, तो वीर्य की वृद्धि होने से अवश्य वेदोदय होगा, फिर वो ज़रूर विषय सेवेगा। क्यों कि यदि बोदी कोथली में बहुत रुपये भरेंगे तो वो ज़रूर फट जाएगी।
८. अइमायाहार-अतिमात्राहार-रूखी भिक्षा भी प्रमाण से अधिक न खावे, क्यों कि अधिक खाने से विकार हो जाता है, अरु शरीर की पीडा, विशूचिकादिक होने का भय रहता है।
विभूसणाइ-विभूपणादि-शरीर की विभूषा-स्नान,