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जैनतत्त्वादर्श
विलेपन, धूप देना अरु नख, दांत, केश का सुन्दरता के वास्ते संस्कार करना, तथा शृङ्गार निमित्त तिलक लगाना, नेत्रों में सुरमा, कजल डालना तथा झावें से पग मांजने, साबु, तेल प्रमुख मसल कर गरम पाणी से, सुकोमलता के वास्ते वदन को धोना, इत्यादिक शरीर की विभूषा न करे । ए नव प्रकार की जो गुप्ति सो ब्रह्मव्रत की रक्षा रूप होने से नव बाड़ कही जाती हैं ।
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अब ज्ञानादि तीन कहते हैं । उसमें से पहला ज्ञान- यथार्थ वस्तु का जो बोधक सो ज्ञान, सो ज्ञानावरीय कर्म के क्षय तथा क्षयोपशम के होने से उत्पन्न होता है । वो बोध अरु तिस का हेतु जो द्वादशांग और द्वादशोपांग तथा प्रकीर्णक उत्तराध्ययनादिक, सो सर्व ज्ञान है । तथा दूसरा दर्शन - जीव, जीव, पुण्य, पाप, श्राश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष, इन जीवादिक नव तत्त्व का जो स्वरूप, तिस में श्रद्धा अर्थात् ए नव तत्त्व तथ्य हैं, मिथ्या नहीं, ऐसी तत्त्वरुचि, तिस का नाम दर्शन है। तथा तीसरा चारित्र सर्व पाप के व्यापारों से ज्ञान अरु श्रद्धा पूर्वक जो निवृत्त होना, तिसका नाम चारित्र है। इस चारित्र के दो भेद हैं, एक देश विरति दूसरा सर्व विरति । उस में देश विरति चारित्र तो जहां गृहस्थ धर्म का स्वरूप लिखेंगे, तहां से जान लेना, अरु जो सर्वविरति चारित्र है, - तिस का ही स्वरूप, इसी गुरुतत्त्व में लिखने लग रहे हैं ।
रत्न-त्रय
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