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जैनतत्त्वादर्श को निवृत्ति अर्थात् इन की दुष्ट प्रवृत्ति का त्याग करना त्रिदण्डविरति है । ये सतारां भेद संयम के हैं । अब इस के प्रकारान्तर से सतारां भेद कहते हैं । पुढवि इत्यादि१. पृथ्वी, २. उदक, ३. अग्नि, ४. पवन, ५. वनस्पति, .. द्वीन्द्रिय, ७. त्रीन्द्रिय, ८. चतुरिन्द्रिय, ६. पञ्चेन्द्रिय, इन नव प्रकार के जीवों के, संरम्भ, समारंभ और प्रारम्भ के करने, कराने अरु अनुमोदने-करते हुए को भला जानने का मन, वचन अरु काया करी त्याग करना अर्थात् इन नव विकल्पों से पूर्वोक्त नव विध जीवों की हिसा न करनी यह नव प्रकार का जीव संयम हुआ। प्राणी के प्राणों को विनाशने का सङ्कल्प करना संरंभ है, जीव के प्राणों को परिताप देना-पीड़ा देनी समारंभ है, तथा जीवों के प्राण का जो विध्वस करना सो आरम्भ है * | तथा १०. अजीव संयम-जिस अजीव वस्तु के पास रखने से संयम कलंकित हो जावे, [जैसे मांस, मदिरा, सुवर्ण प्रमुख सर्व धातु, मोती आदिक सर्वरत्न, अंकुशादिक सर्व शस्त्र, इत्यादिक अजीव वस्तु के रखने से संयम में कलंक आवे] सो अजीव वस्तु पास न रखनी । परन्तु अजीव वस्तु रूप जो पुस्तक, तथा शरीरोप करणादि हैं, सो तो प्रतिलेखना-प्रमार्जना पूर्वक यतना से इस काल में रखना, क्योंकि दुःषमादि काल दोष से बुद्धि,
* संकप्पो संरंभो परितावकरो भवे समारभो । · आरंभो उद्दवो सुद्धनयाणं तु सव्वे सिं ॥ [प्रव० सा० वृत्तिः]