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जैनतत्त्वादर्श
भी अभिमान रहित होना । ३. ऋजु -कहिये मन, वचन, काया करी सरल, तिस का जो भाव वा कर्म, सो आर्जवमन, वचन, काया की कुटिलता से रहित होना । ४. मुक्तिबाहिर, अन्दर से तृष्णा का त्याग — लोभ का त्याग । ५. रसादिक धातु अथवा अष्ट प्रकार के कर्म जिस करके तपें, सो तप, वो अनशनादि भेद से बारां प्रकार का है * 1 ६. संयम आश्रव की त्यागवृत्ति । ७. सत्य — मृपावाद विरति - झूठ का त्याग ८ शौच - अपनी संयमवृत्ति में. कोई कलंक न लगाना नहीं है किचित् मात्र द्रव्य जिस
के पास सो अकिंचन, तिस का भाव वा कर्म आकिंचन्य ।
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१०. ब्रह्म - *नवगुप्ति युक्त ब्रह्मचर्य । एदश प्रकार का यतिधर्म है । तथा मतांतर में दश प्रकार का यतिधर्म ऐसे भी कहते हैं:
+ खंती मुत्ती प्रजव मद्दव तह लाघवे तवे चैव ।
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* इस का उल्लेख मूल ग्रन्थ मे ही आगे आ जायगा ।
+ उक्त गाथा प्र० सा० की ५५४ गाथा की वृत्ति में मिलती है । गाथा में आये हुए 'लाघव' तथा 'चियाग' - त्याग श द का अर्थ वृत्तिकार श्री सिद्धसेन सूरि ने इस प्रकार किया है:
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"लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपोधिता भावतो गौरवपरिहारः, त्यागः सर्वसङ्गानां विमोचनं संयतेभ्यो वस्त्रादिदानं वा"
अर्थात् बाह्य - वस्त्रादि और आभ्यन्तर - रागद्वेषादि उपाधि से रहित होना लाघव कहा जाता है । सर्व प्रकार की आसक्ति से मुक्त होना अथवा संयमशील व्यक्ति को वस्त्रादि देना त्याग माना जाता है ।