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तृतीय परिच्छेद
१८३ भावना जिस में होवें, तथा चरण सत्तरी अरु करण सत्तरी करके जो युक्त होवे, सो जैन मत में गुरु माना है।
अव चरण सत्तरी के सत्तर भेद लिखते हैं:वय समणधम्म संजम, वेयावच्चं च बंभगुत्तायो।। नाणाइतियं तव कोहनिग्गहा इइ चरणमेयं ।।
[प्रव० सा०, गा० ५५२] अर्थः-व्रत-पांच प्रकार का, श्रमणधर्म-दश प्रकार का, संयम-सतरां प्रकार का, वैयावृत्त्य-दश प्रकार का, ब्रह्मचर्य गुप्ति-नव प्रकार की, ज्ञान, दर्शन, चरित्र, ए तीन प्रकार का, तप-बारां प्रकार का, निग्रह क्रोधादिक चार प्रकार का, ए सर्व सत्तर भेद हैं । तिन में से पांच प्रकार के व्रत का स्वरूप तो ऊपर भावना सहित लिख आये हैं।
अब श्रमण धर्म दस प्रकार का लिखते हैं:खतीयं मद्दव अज्जव मुत्ती तवसंजमे य बोधव्ये । सचं सोयं आकिंचणं च चंभं च जइधम्मो ॥
[प्रव० सा०, गा० ५५४ ] अर्थः-१. क्षांति-क्षमा करनी, चाहे सामर्थ्य होवे, चाहे
असामर्थ्य होवे, परन्तु दूसरे के दुर्वचन को दस प्रकार का सह लेने का जो परिणाम-मनोवृत्ति है, यतिधर्म तिस को क्षमा कहते हैं, अर्थात् सर्वथा क्रोध
का त्याग क्षमा है । २ मृदु-कोमल अहंकार रहित, तिसका जो भाव वा कर्म, सो मार्दव-ऊंचा हो कर