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जैनतत्त्वादर्श प्रमुख रोग हो जाते हैं, इस वास्ते प्रमाण से अधिक भोजन भी न करे । पूर्व पुरुषों ने खाने की मर्यादा ऐसे लिखी है* अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दोभागे। वाउपविआरणट्ठा, छन्भायं उणयं कुज्जा॥
[पिडनि०, गा० ६५०] अर्थः-उदर के छः भाग की कल्पना करे, तिन में से.तीन भाग तो अन्न से भरने, अरु दो भाग पानी से तथा एक भाग खाली रखना जिस से सुखे सुखे श्वास नि श्वास प्राता रहे।
अब पांचवें महाव्रत की पांच भावना लिखते हैं:स्पर्शे रसे च गंधे च, रूपे शब्दे च हारिणि । पंचस्वितीन्द्रियार्थेषु, गाढं गाद्धर्थस्य वर्जनम् ।। एतेष्ववामनोज्ञेषु, सर्वथा द्वेषवर्जनम् । आकिंचन्यव्रतस्यैवं, भावना पंच कीर्तिताः ।।
[यो० शा०, प्र० १ श्लो० ३२,३३] अर्थः-मनोहर स्पर्शादिक पांच विषयों में जो अत्यंत गृद्धिपना, सो वर्जना, अरु अमनोज्ञ स्पर्शादिक पांच विषयों में द्वेष न करना । एवं पूर्वोक्त पांच महाव्रत, अरु पच्चीस * अर्द्धमशनस्य सव्यञ्जनस्य कुर्यात् द्रवस्य द्वौ भागौ। वायुप्रविचारणार्थ षड्भागमूनकं कुर्यात् ।।