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जैनतत्त्वादर्श अर्थः-१. जिस घर में अथवा भीत के अन्तरेव्यवधान में देवी अथवा मनुष्य को स्त्री वसे-रहे, अथवा देवांगना वा सामान्य स्त्री की लेप, चित्राम प्रमुख की मूर्ति होवे, तथा षंढ-नपुंसक ( तीसरे वेद वाला) जिस घर में रहता होवे; तथा पशु, गाय, महिषी, घोड़ो, बकरी, भेड़ प्रमुख तिर्यंच स्त्री जिस मकान में रहती होवे, तथा जिस मकान में काम सेवन करती स्त्री का शब्द तथा दूसरा कोई मोह उत्पन्न करने का शब्द, तथा आभूषणों का शब्द सुनाई देवे; ऐसे-पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त मकान में तथा एक भीत के अन्तरे में साधु न रहे । २. सराग-प्रेम सहित, स्त्री के साथ वार्तालाप न करे, अथवा सराग स्त्री के साथ वार्ता न करे, तथा स्त्री के देश, जाति, कुल, वेष, भाषा, स्नेह, श्रृंगार प्रमुख की कथा सर्वथा न करे। क्योंकि जो पुरुष सराग स्त्री के साथ स्नेह सहित कामशास्त्र संयन्धी कथा करेगा, सो अवश्य विकार भाव को प्राप्त होगा, इस वास्ते सराग स्त्री से कथा न करे । ३. दीक्षा लेने से पहिले गृहस्थावस्था में जो स्त्री के साथ काम क्रीडा, वदनचुम्बन, चौरासी कामासनों द्वारा विषय सेवन प्रमुख क्रीडा करी होवे, तिस का मन में कदे भी स्मरण न करना । क्योंकि पूर्व क्रीडास्मरणरूप इंधन से कामाग्नि फिर धुखने लग जाती है । ४. तथा स्त्री के मुख, नयन, स्तन, जघन, होठ प्रमुख अंगों को सराग दृष्टि से नहीं देखना, तथा अपूर्व