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तृतीय परिच्छेद
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हो जावे, तब जंगल - पुरीष, मूत्र करने को जगा ज़रूर चाहिये । गृहस्वामी की आज्ञा के बिना, उस के मकान में मल मूत्र करे, तो चोरी लगे । उपाश्रय की भूमि की मर्यादा करना: जैसे कि इतनी जगा तक हमारे को तुमारी आज्ञा रही । जेकर मर्यादा न कर लेवे तो अधिक भूमि को काम में लाने से चोरी लगती है । ४. समान धर्मी से माझा लेना- कोई समान धर्मी साधु किसी जगा में प्रथम उतर रहा है, पीछे दूसरा साधु जो उस मकान में उतरना चाहे, तो उस प्रथम साधु की आज्ञा लेवे, अरु उसकी आज्ञा के बिना न रहे । जेकर प्रथम साधु की आज्ञा न लेवे, तो स्वधर्मी प्रदत्त का दोप लागे । ५ गुरु की आज्ञा लेना - साधु अन्न, पान, वस्त्र, पात्र, और शिष्यादिक जो कुछ भी लेवे, सो सर्व गुरु की आज्ञा से लेवे । जेकर गुरु की आज्ञा के बिना भी कोई वस्तु ले ले तो उस को गुरु अदत्त का दोष लागे । अव चौथे महाव्रत की पांच भावना लिखते हैं:स्त्रीपंढपशुमद्वेश्मा - सनकुड्यां तरोज्झनात् । सरागस्त्रीकथात्यागात्, प्राग्रतस्मृतिवर्जनात् ॥ स्त्रीरम्यांगेक्षणस्वांग-संस्कारपरिवर्जनात् । प्रणीतात्यशनत्यागात्, ब्रह्मचर्य च भावयेत् ॥
[ यो० शा० प्र० १ श्लो० ३०, ३१ ]
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