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जैनतत्त्वादर्श निषेध करे, तो हमारे पक्ष को वह बाधक ठहरे, परन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण तो ऐसा है नहीं, प्रत्यक्ष प्रमाण तो इतर वस्तु में इतर वस्तु के स्वरूप का निषेध करने में *कुण्ठित है।
उत्तरपक्ष-यह भी तुमारा कहना असत्य है। अन्य वस्तु के स्वरूप का निषेध किये बिना वस्तु के यथार्थ स्वरूप का कदापि वोध न होगा, क्योंकि जब पीतादिक वर्णों करी रहित, ऐसा बोध होगा, तब ही नील रूप का बोध होगा। तथा जब प्रत्यक्ष प्रमाण करी यथार्थ वस्तु स्वरूप ग्रहण किया जायगा, तब तो अवश्य अपर वस्तु के स्वरूप का निषेध भी तहां जाना जायगा। जेकर अन्य वस्तु के निषेध को अन्य वस्तु में प्रत्यक्ष नहीं जानेगा तो तिस वस्तु के विधि स्वरूप को भी प्रत्यक्ष न जान सकेगा। केवल जो वस्तु के स्वरूप को ग्रहण करना है, सोइ अन्य वस्तु के स्वरूप का निषेध करना है । जब प्रत्यक्ष प्रमाण, विधि अरु निषेध दोनों ही को ग्रहण करता है, तब तो प्रपंच मिथ्या रूप कदापि सिद्ध न होगा। जब प्रपंच मिथ्यारूप प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध न भया, तब तो परम ब्रह्म रूप एक ही अद्वैत तत्त्व कैसे सिद्ध होगा ? तथा जो तुम प्रत्यक्ष को नियम करके विधायक ही मानोगे, तब तो विद्यावत् अविद्या की भी विधि तुम को माननी पडेगी । सो यह ब्रह्म अविद्यारहित जब प्रत्यक्ष प्रमाण से ग्रहण किया, तब तो अविद्या का निषेध भी प्रत्यक्ष से ग्रहण होगा। फिर जो तुमारा यह कहना है कि प्रत्यक्ष
* असमर्थ ।