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जैनतत्वादर्श इस करके कार्य रूप हैं। यह सर्व वादियों को सम्मत है । तथा ऐसे भी न कहना कि यह तुमारा हेतु अनेकांतिक तथा विरुद्ध है । *क्योंकि हमारा हेतु विपक्ष से अत्यंत हटा हुआ है। तथा ऐले भी मत कहना कि यह तुमारा हेतु कालात्ययापदिष्ट है, क्योंकि प्रत्यक्ष अनुमान और आगम करके अवाधित धर्म धर्मी के अनन्तर कहने से [तात्पर्य यह कि प्रत्यक्ष, अनुमान
और पागम से अबाधित धर्म और धर्मी के सिद्ध हो जाने पर ही इस का कथन किया है । इस लिये यह कार्यत्व हेतु बाधित नहीं है] । तथा यह भी मत कहना कि तुमारा हेतु प्रकरण सम है, क्योंकि अनुमान से जो साध्य है, तिस के
* क्योकि जो हेतु पक्ष को छोड कर विपक्ष मे भी चला जावे, वह अनेकान्तिक अथवा व्यभिचारी होता है । परन्तु यहा पर तो कार्यत्व हेतु अपने पक्षभूत पृथिवी आदि को छोड़ कर विपक्षभूत आकाशादि में नहीं जाता, इस लिये अनेकांतिक नही हैं । तथा विरुद्ध भी नहीं, क्योकि जो हेतु अपने साध्य के विरोधी का नियत सहचारी हो, उसे विरुद्ध हेतु कहते हैं, जैसे शब्द नित्य है, कार्य होने से । इस अनुमान मे नित्य के विरोधी अनित्य के साथ कार्यत्व हेतु का नियम से सम्बन्ध है, इस लिये कार्यत्व हेतु विरुद्ध है । परन्तु हमारा यह कार्यत्व हेतु तो अपने साध्य बुद्धिमत्कर्तृकत्व के साथ ही नियम रूप से रहता है । उस के विरोधी के साथ उस का कोई सम्बन्ध नहीं है, इस लिये यह हेतु विरुद्ध नहीं है।
: इस कथन का अभिप्राय यह है कि-जिस अनुमान मे साध्य के अभाव का साधक कोई दूसरा प्रतिपक्षी हेतु विद्यमान हो उसे प्रकरण