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द्वितीय परिच्छेद
१४७ क्रीडा जो है, सो सरागी को होती है, अरु ईश्वर तो बीतराग है, तो फिर ईश्वर का क्रीडारस में मग्न होना कैसे संभवे?
प्रतिवादी हमारा ईश्वर जो है सो रागी द्वेषी है, इस कारण से उसमें क्रीडा करने का संभव हो सकता है। __ सिद्धान्तीः-तब तो तुम ने अपना मुख धोने के बदले उलटा काला कर लिया। क्योंकि जो राग अरु द्वेष वाला होगा, वह हमारे सरीखा रागी ही होगा; किन्तु वीतराग नहीं होगा। तब तो वीतराग न होने से वोह ईश्वर तथा सर्वत्र भी नहीं हो सकता। तो फिर उस को सृष्टि के रचने वाला क्यों कर माना जावे ? __ प्रतिवादी हम तो ईश्वर को राग द्वेष संयुक्त और सर्वन मानते हैं, इस वास्ते सर्व जगत् को कर्ता है।
सिद्धान्ली:-इस तुमारे कहने में कोई भी प्रमाण नहीं है । जिस से कि ईश्वर रागी, द्वेषी, अरु सर्वज्ञ सिद्ध होवे ।
प्रतिवादी:- ईश्वर का स्वभाव ही ऐसा है, कि रागी द्वेषी भी होना. अरु सर्वज्ञ भी रहना । स्वभाव में कोई तर्क नहीं हो सकती। जैसे कोई प्रश्न करे कि अग्नि दाहक है, तद्वत् आकाश दाहक क्यों नहीं ? तो इसका यही उत्तर दिया जायगा कि अग्नि में दाह का स्वभाव है, आकाश में नहीं। इसी प्रकार ईश्वर भी स्वभाव से ही रागी, द्वेषी अरु सर्वश है।