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द्वितीय परिच्छेद
थे । उनके आगे फिर गर्भ से उत्पन्न होने लगे ।
सिद्धान्ती:- यह अप्रामाणिक कहना कोई भी विद्वान् नहीं मानेगा, क्योंकि माता पिता के बिना कभी पुत्र नहीं उत्पन्न हो सकता । जे कर ईश्वर ने प्रथम माता पिता के बिना ही पुरुष स्त्री उत्पन्न कर दिये थे, तो अब भी घड़े घड़ाये, बने बनाये, स्त्री पुरुष क्यों नहीं भेज देता ? गर्भ धारण कराना, स्त्री पुरुष का मैथुन कराना, गर्भवास का दुःख भोगाना, योनि यन्त्र द्वारा खैच के निकालना, इत्यादि संकट वह काहे को देता है ? अनन्त वार ईश्वर ने सृष्टि रची, अरु अनंतवार प्रलय करी, तब तो ईश्वर थका नहीं, तो क्या मनुष्यों ही के बनाने से उस को थकेवां चड गया ? जो कि अब वो घड़े घड़ाये, बने बनाये, नहीं भेज सकता ? यह कभी नहीं हो सकता, कि माता पिता के विना पुत्र उत्पन्न हो जावे । इस हेतु से भी जगत् का प्रवाह अनादि काल से इसी तरें तारतम्य रूप से चला आता सिद्ध होता है ।
प्रतिवादी:- जे कर ईश्वर सर्व वस्तु का अरु जीव ही कर्त्ता होवे, तब तो जीव थापही कर लेवेगा, अरु शरीर को कदे भी नहीं अपने आप को जो अच्छा लगेगा सो करेगा। मरेगा नहीं ।
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कर्त्ता न होवे,
शरीर धारणा
छोड़ेगा, प्ररु
फिर तो कभी
सिद्धान्ती:- जो तुमने कहा है, सो सर्व कर्मों के वश है, जीव के अधीन नहीं । जे कर कहो कि कर्म भी तो जीव