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तृतीय परिच्छेद
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पाप है । सर्व प्रकार की चोरी का जो त्याग करना है, इसी
- का नाम श्रदत्तादान त्यागरूप महाव्रत है । अव चौथे महाव्रत का स्वरूप लिखते हैं:दिव्यौदारिककामानां कृतानुमतिकारितैः । मनोवाक्कायतस्त्यागो ब्रह्माष्टदशधा मतम् ॥
[ यो० शा०, प्र० १ श्लो० २३] अर्थः---दिव्य-देवता के वैक्रिय शरीर सम्बन्धी जो काम भोग, अरु प्रदारिक- तिर्यच और मनुष्य के शरीर संबन्धी जो कामभोग, एतावता वैक्रिय शरीर अरु औदारिक शरीर, ए दोनों के द्वारा विषय सेवन करना, और दूसरे से ' विषय सेवन करवाना, जो विषय सेवन करे उस को अच्छा जानना, एछ भेद मन करके, छ वचन करके, अरु छ काया करके, एवं अठारह प्रकार का जो मैथुन, तिस के सेवन का जो त्याग करना, उस को ब्रह्मचर्य व्रत कहते हैं ।
अव पांचवां महाव्रत लिखते हैं:
सर्वभावेषु मूर्च्छाया-स्त्यागः स्यादपरिग्रहः । यदि सत्स्वपि जायेत, मूर्छया चित्तविप्लवः ॥
[ यो० शा०, प्र० १ श्लो० २४ ]
अर्थ:-सर्व- सम्पूर्ण जो भाव-पदार्थ- द्रव्य क्षेत्र काल भाव' रूप वस्तु, तिस विषे जो मूर्छा-ममत्व-मोह, तिसका जो त्याग, तिसका नाम अपरिग्रह व्रत कहिये । परन्तु जिस का