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तृतीय परिच्छेद
१७१ पथ्यकारी होवे-परिणाम में सुन्दर होवे-एतावता जिस वचन से जीव का प्रागे को बहुत सुधार होवे, तथा जो वचन सत्य होवे; ऐसा जो वचन बोलना, सो सूनृतव्रत कहिये । इस व्रत के विषे कछुक विशेष लिखते हैं। जो वचन व्यवहार में चाहे सत्य ही होवे, परन्तु जो अगले-दूसरे जीव को दुःखदायी होवे, ऐसा वचन न बोले जैसे काणे को काणा कहना, चोर को चोर कहना, कुष्ठी को कुष्ठी कहना, इत्यादिक जो वचन दूसरे को दुःखदायी हो, सो न बोले । तथा जो वचन जीवों को आगे अनर्थ का हेतु होवे, वसुराजावत, सो भी न बोले । जेकर यह पूर्वोक्त दोनों वचन साधु बोलें, तवं तो उस के सूनृतवत में कलंक लग जावे, क्यों कि यह दोनों वचन झूठ ही में गिने है।
अव तीसरा महाव्रत लिखते हैं.अनादानमदत्तस्या-स्तेयव्रतमुदीरितम् ।। बाह्याः प्राणा नृणामों, हरता तं हता हि ते ।। . .
यो० शा०, प्र० १ श्लो० २२] अर्थः-प्रदत्त-मालिक के विना दिये ले लेना, तिस का जो नियम अर्थात त्याग है, सो अस्तेयव्रत कहिये, प्रचौर्यव्रत इसी का नामांतर है । वह अदत्तादान चार प्रकार का है- १. जो साधु के लेने योग्य-अचित्त (जीवरहित) वस्तु अर्थात् माहार, तृण, काष्ठ, पाषाणादिक वस्तुं