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तृतीय परिच्छेद भ्रष्ट प्रकार का निमित्त शास्त्र, तया वैद्यक शास्त्र, धन उत्पन्न करने का शास्त्र, राज सेवा प्रादिक अनेक शास्त्र, जिन से कि धर्म को बाधा पहुंचे, तिन का उपदेशक न होवे। क्यों कि लौकिक जो शास्त्र हैं, सो तो बुद्धिमान् पुरुष वर्तमान में भी बहुत सोखते हैं । तथा नवीन नवीन अनेक सांसारिक विद्या के पुस्तक बनाते हुए चले जाते हैं । तथा अगरेजों की बुद्धि को देख कर बहुत से इस देश के लोक भी सांसारिक विद्या में निपुण होते चले जाते हैं । इस वास्ते साधु को धर्मोपदेश ही करना चाहिये, क्योंकि धर्म ही जीवों को प्राप्त होना कठिन है । गुरु के ऐसे लक्षण जैन मत में हैं।
तथा प्रथम जो पांच महाव्रत साधु को धारण कहे हैं, सो कौन से वे पांच महाव्रत हैं ? सो कहते हैं:
अहिंसासूनृतास्तेय-ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः । पंचभिः पंचभिर्युक्ता भावनाभिर्विमुक्तये॥
[यो० शा०, प्र० १ श्लो०१६ ] अर्थः-१. अहिसा-जीवदया, २. सूनृत-सत्य बोलना
३. अस्तेय-लेने योग्य वस्तु को विना दिये न पंच महाव्रत लेना, ४. ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य का पालना, ५. का स्वरूप अपरिग्रह-सर्वप्रकार के परिग्रह का त्याग,
इन पांचों को महाव्रत कहते हैं । तथा इन पांच महाव्रतों में एक एक महावत की पांच पांच भावना