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द्वितीय परिच्छेद
१५१ की बात है ? क्या तुमने ईश्वरों को कोड़ों से भी बुद्धिहोन, अभिमानी, अरु अज्ञानी बना दिया, जो कि उन सब का एक मता नहीं हो सकता?
प्रतिवादी:-मक्षिका जो बहुत एकठो हो कर एक मधुछत्ता आदिक कार्य बनाती हैं। तहां भी एक ईश्वर ही के व्यापार से एक मधुछत्ता बनता है।
सिद्धान्तीः-तब तो घड़ा बनाना, चोरी करना, परस्त्री गमन करना, इत्यादिक सब काम ईश्वर के ही व्यापार से करे सिद्ध होंगे। अरु सर्व जोत्र अकर्त्ता सिद्ध हो जावेंगे। फिर पुण्य पाप का फल किस को होगा ? अरु नरक स्वर्ग में जीव क्यों भेजे जायेंगे ?
प्रतिवादी:-कुम्भारादिक चोरादिक सर्व जोव, स्वतंत्रता से अपना अपना कार्य करते है, यह प्रत्यक्ष सिद्ध है।
सिद्धान्ती:-क्या मक्षिकाओं ही ने तुमारा कुछ अपराध करा है, जो उन को स्वतंत्र नहीं कहते हो? तथा इस तुमारे एक ईश्वर मानने से तो ऐसा भी प्रतीत होता है, कि जेकर अनेक ईश्वर माने जावेंगे तो, कदाचित एक सृष्टि रचने में उनका विवाद हो जावे, तो उस विवाद को दूर कौन करेगा? क्योंकि सरपंच तो कोई है नहीं । तथा एक ईश्वर को देख के दूसरा ईश्वर ईा करेगा, कि यह मेरे तुल्य क्यों है ? इत्यादिक अनेक उपद्रव उत्पन्न हो जायेंगे। इस वास्ते ईश्वर एक ही मानना चाहिये, यह तुमारी समझ भी अज्ञान रूप